आख़िर सब कुछ छूट ही जाता है
घर वापस लौट रहा हूं अब ।
सामान बांधता जाता हूं,
और साथ सोचता जाता हूं,
“कुछ छूट तो नहीं रहा है?”
एक दिन ऐसा भी आएगा,
जब मृत्यु शैय्या पर लेटा
यह देखूंगा,
“सब छूट रहा है...”
आख़िर सब कुछ छूट ही जाता है ।
        
जब छूट ही जाना है सब कुछ
तो फिर इतने हंगामे क्यों?
डर की ये चीख़ पुकारें क्यों?
सपनों के शोर-शराबे क्यों?
ये आज की ममी बना करके
कल जीने की नादानी क्यों?
क्यों दौड़ लगाए जाता हूं?
क्यों ख़ुद को हराए जाता हूं?
        
बस बहुत हुआ, अब रुक जाऊं ।
जो मिला है उसको जी पाऊं
जीवन अमृत को पी पाऊं
बस इतना ही काफ़ी होगा
कि अंतिम क्षण में कह पाऊं
“सब छूट गया मैं मुक्त हुआ ।”